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कवी रविंदर सिंह कि कविता (महंगाई )

kavi ravinder singh .com
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भूख लगी है आग जगी है

बहार खड़ी महंगाई  है  ….

चुल्ले में लकड़ी फूक रही है

आँखे उसकी दूख रही है

भूखी आतें सूख रही है

पेट भरण से चूक रही है

रूखे ही खा टूक रही है

ये बात बड़ी दुःख दाई है

भूख लगी है आग जगी है

बहार खड़ी महंगाई  है  ….

मेरी नजरे देख रही थी

कच्ची रोटी सेख रही थी

बिना चोपड़े टेक रही थी

आदत उसकी नेक रही थी

बस आज हुई रुस्वाई है

भूख लगी है आग जगी है

बहार खड़ी महंगाई  है  ….

रविंदर सिंह ऊन शामली

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