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हे मानव

kavi ravinder singh .com
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लगो कुछ सोच विचारन
लगी प्रकृति हारन …………………
जंगल टूट रहा है
जीवन लूट रहा है
घरोंदा छूट रहा है
मानव तेरे कारन ………………..
सदा तू वीर रहा है
धरती चीर रहा है
खतम कर नीर रहा है
देऊ मै और उधारन ……….
धरती डोल रही है
दरारे खोल रही है
हकीकत बोल रही है
मिटेगा ऐसे जीवन ………..
बवंडर सह रहा है
समन्दर बह रहा है
रविंदर कह रहा है
चले भूमण्डल मारन……………..

कवि रविंदर सिंह ऊन शामली

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