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एक दिन मैं सुख की खोज में निकल गया था
चारो और गर्मी ही गर्मी थी मैं पिंघल गया था
कई लोग मुझसे ही सुख का पता बुझने वाले थे
हमने झट बात को पलटा वार्ना हम फसने वाले थे
हमारे पास तो केवल दुःख का पता हुआ करता था
जो हमें सुबह शाम हर वक्त मिल जाया करता था
मैंने सुख को सेठ साहूकारों और दलालो में भी ढूंढा
गिरजाघर मस्जिद गुरुद्वारा और शिवालों में भी ढूंढा
लेकिन सुख का पता कही नहीं मिलता दिख रहा था
हमारा कीमती समय और बर्बाद होता दिख रहा था
गगन चुम्बी इमारतों और बड़े प्रतिष्ठानों में भी गया
बड़े – बड़े होटलो पार्को भव्य मकानों में भी गया
संसद विधायको और अधिकारियो से भी मिला था
सभी जगह दुःख का डेरा था सुख का फूल कही ना खिला था
सुख तो मुझे ना मिला पर दुःख मुझसे मिलने आया करता था
दुनियादारी की बहुत सारी अच्छि अच्छि बातें बताया करता था
मुझे पता चला की दुःख तो सुख का बिलकुल खासम खास है
मैंने दुःख से कहा भाई तू ही बतादे सुख का कहाँ वास है
उस दिन दुःख बोला सुख कही बाहार नहीं तेरे अंदर है भाई
उस दिन उसने और भी कई सारी बात मुझे बार बार समझाई
जैसे ममता में सुख पिता के प्यार में सुख वृक्ष की छाया में भी
परिश्रम में सुख दुसरो की भलाई में सुख कमाई हुई माया में भी
बोला जीवन तो लक्षण भंगुर है कल के लिए आज को बेकार ना कर पुत्र
जो मिले उसी में सबर कर सुख ही सुख मिलेगा अहंकार ना कर पुत्र
मेरा मतलब ये नहीं की मेहनत ना कर, अरे पुत्र मेहनत तो कर
मेहनत ही सफलता की कुंजी है मेहनत कर, पर परमात्मा से डर
लेखक रविंदर सिंह शामली
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कृपया कविता को मूल रूप में ही रहने दे आदरणीय मित्र काट पीट ना करे
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